सफ़र
- Niharika
- Apr 16, 2023
- 1 min read
Updated: May 3
वह रास्ता लंबा था। क्षितिज हर कदम पर दो कदम दूर जा रहा था। आगे ही देखकर मैं चलती रही। ज़्यादातर भागती रही। मंज़िल कब पहुँचूँगी? मंज़िल में क्या है? सब बेजवाब बेकार सवाल। आगे रास्ता था तो हज़ारों के साथ मैं भी चल पड़ी। रास्ते का स्वभाव हर दिन बदलता रहा। कभी कांटों से भरा तो कभी कींचड़ से। कभी पत्थरों में टकराकर गिर गई तो कभी गरम रेत से पैर जल गए। आगे पीछे लोग गिरते रहे, उठते रहे, कुछ वहीं रह गए। पर अंदर की एक कुतूहल से मैं चलती रही।
फिर एक सबेरे पैर में इतनी दर्द हुई कि उठ नहीं सकी। सड़क के बींचोबीच बैठकर रास्ते को कोसती रही तो एक बूठी औरत मुस्कुराते हुए आकर पास बैठी। कुछ पल के मौन के बाद हम बातचीत करने लगे। मैं पूछी कि वह इतनी साल तक यह यात्रा कैसी कर पाई और इतनी ख़ुश कैसी रहती है। वह थोड़ी देर तक रास्ते के दोनों तरफ़ देखती रही और धीमी-सी आवाज़ में कहने लगी- “लक्ष्य पर एकाग्र रहकर चलते जाना और कठिनाईयों को पार करना हरगिज़ ज़रूरी है। लेकिन उतना ही अनिवार्य है मार्ग का आनंद लेना। इस रास्ते की मंज़िल से सौ गुणा खूब है इसके किनारे। कभी कभी उन पर ध्यान दो, ख़ुशी ख़ुद ही चली आएगी।”

उन्होंने मेरे पैरों पर कुछ मरहम लगाई और मुझे उनकी बातों पर विचार करने के लिए छोड़कर चली गई।
तभी, चारों तरफ़ पेड़ों से भरे उस घने जंगल में रोशनी फैलाते हुए, सूरज उग रहा था। और उस रोशनी की लकीरें बन रहे थे मेरे हमसफ़र।
-March 2022
written for Snapscribe Hindi as part of Ishya'22
Comentários